इस युग के जीवन मुक्त, तत्वज्ञ एवं भगवत प्रेमी महापुरुष परम श्रद्धेय श्री स्वामीजी रामसुखदासजी महाराज का आविर्भाव राजस्थान स्थित नागौर जिले के एक छोटे से गाँव ‘माडपुरा’ में सन् 1904 (वि. सं. 1960) में फाल्गुन मास में हुआ था। चार वर्ष की छोटी सी अवस्था में ही माँ ने उन्हें साधु बना दिया था। पूर्णतः त्यागमय साधु धर्म निभाते हुए वे लगभग 102 वर्ष की अवस्थातक इस धरातल पर रहे और आजीवन गाँव- गाँव, शहर -शहर जाकर सत्संग की अमृत वर्षा करते रहे। अपने जीवन में उन्होंने भारत में जितना भ्रमण किया, उतना कदाचित ही किसी सन्त ने किया हो। व्यक्तिगत प्रचार से दूर रहकर केवल लोक कल्याण की भावना से गीता में आये भगवद् भावों का प्रचार करना ही उनके जीवन का मुख्य ध्येय रहा। इसलिए अपनी फोटो खिंचवाने, चरण- स्पर्श करवाने, चेला- चेली बनाने, भेंट स्वीकार करने, रुपए आदि वस्तुओं का संग्रह करने, आश्रम बनाने, टोली बनाने आदि कार्यों से वे सर्वदा दूर रहे, और इस प्रकार उन्होंने न तो किसी व्यक्ति, संस्था, सम्प्रदाय,आश्रम आदि से व्यक्तिगत सम्बन्ध जोड़ा और न ही किसी को अपना शिष्य, प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी ही बनाया। केवल भिक्षा से ही अपना जीवन- निर्वाह करते हुए वे आजीवन नि:स्वार्थ भाव से मनसा-वाचा-कर्मणा लोक कल्याण में ही लगे रहे।
कम से कम समय में तथा सुगम से सुगम उपाय से मनुष्य मात्र का कैसे कल्याण हो- यही उनका एकमात्र लक्ष्य था और इसी की खोज में जीवन भर लगे रहे। इस विषय में उन्होंने अनेक क्रांतिकारी नये-नये विलक्षण उपायों की खोज की और उन्हें अपने प्रवचनों एवं लेखों के द्वारा जन-जन तक पहुँचाया। किसी मतवाद, भाषा व सम्प्रदाय आदि का आग्रह न रखते हुए उन्होंने जैसा स्वयं अनुभव किया, उसी का प्रचार किया। आध्यात्मिक मार्ग के गूढ़, जटिल तथा ऊँचे से ऊँचे विषयों का उन्होंने जनसाधारण के सामने बड़ी सरल रीति से विवेचन किया, जिससे साधारण पढ़ा लिखा मनुष्य भी उन्हें सुगमता से समझ सके और अपने जीवन में उतार सके।