पूज्य महाराज जी की बचपन से ही गीता जी में गहरी रुचि थी। उनके कथन अनुसार विद्या काल में ही उनको पूरी गीताजी कण्ठस्थ हो चुकी थी। चुंकि पूज्य महाराज जी ने संस्कृत में अपनी पढ़ाई की थी इसलिए गीता जी का अर्थ उनके लिए सुलभ हो गया था। फिर लगभग 29 वर्ष की आयु में पूज्य महाराज जी-पूज्य सेठ जी श्री जयदयाल जी गोयन्दका के संपर्क में आ गए। पूज्य सेठ जी स्वयं एक उच्च कोटि के अधिकार प्राप्त महापुरुष थे, उनके जीवन पर गीता जी का बहुत प्रभाव था। पूज्य सेठ जी स्थान- स्थान पर पूज्य महाराज जी के द्वारा सत्संग करवाते थे। उन सत्संगो में भी पूज्य महाराज जी का प्रिय विषय गीता जी ही होता था।
धीरे-धीरे समय बीतता गया आगे जाकर कुछ गीता प्रेमी सज्जनों के आग्रह से पूज्य महाराज जी ने गीता जी के 12 वा अध्याय पर “गीता जी का भक्ति योग” नाम की टीका लिखवाई, जो विक्रम संवत 2030 तदनुसार लगभग सन 1973 में गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित हुई। इसके पश्चात धीरे-धीरे गीता जी के सभी 18 अध्यायों की व्याख्या अलग-अलग नाम से अलग-अलग खंडों में प्रकाशित हुई। चुंकि उपरोक्त सभी टीका अलग-अलग नामों से अलग-अलग खंडों में थी अतः सभी अंक एक साथ मिलने में कठिनाई आने लगी थी। अतः बहुत विचार करके यह निश्चय हुआ कि सभी खंडों को मिलाकर एक ग्रंथ बना दिया जाए। इसके लिए पुरानी टीकाओं में आवश्यक संशोधन किया गया तथा कुछ अध्यायों की टीका पुनः लिखवाई गई। इस प्रकार अथक प्रयास के बाद नई टीका का काम पूरा हो सका था।
इस टीका का गीता प्रेस से प्रथम संस्करण का प्रकाशन भाद्रपद कृष्ण 3 विक्रम संवत् 2042 (2 सितंबर 1985) को हुआ था। जब यह टीका प्रकाशित हुई उस समय पूज्य महाराज जी मुरली मनोहर धोरा भीनासर में विराज रहे थे। जब वहां पर इस टीका को लाया गया तब सभी संतो ने मिलकर इस की आरती उतारी थी। चुंकि यह टीका साधकों की दृष्टि से लिखवाई गई थी इसलिए इस टीका का नाम “साधक संजीवनी” रखा गया है।
साधक संजीवनी लिखाते समय पूज्य महाराज जी कहते थे इसे इस तरह से लिखना है कि पढ़ने वाले को तत्वज्ञान हो जाए एवं मुक्त हो जाए।
पूज्य महाराज जी के श्री मुख से निकला हुआ है कि जिस प्रकार गोस्वामी जी महाराज द्वारा रचित तुलसी कृत रामायण का अभी घर-घर प्रचार हो रहा है, इसी प्रकार 400 - 500 वर्षों के बाद साधक संजीवनी का प्रचार होगा। उस समय गीता के श्लोकों के अर्थ पर कोई विचार होगा तो साधक संजीवनी के अर्थों को मुख्यता दी जाएगी।
साधक संजीवनी के पश्चात भी पूज्य महाराज जी का गीता जी पर विचार करना बंद नहीं हुआ था। सन 1992 मथानिया चतुर्मास में पूज्य महाराज जी को भक्ति संबंधी भाव बहुत प्रबलता से आए। अतः पुनः जो नए भाव आए थे उनको “परिशिष्ट भाव” नाम से साधक संजीवनी में श्लोक के अर्थ अनुसार भाव लिख दिए गए। इसके उपरांत भी फिर नए-नए भाव प्रकट होने लगे जिन्हें “गीता प्रबोधनी” नामक पुस्तक के द्वारा प्रकाशित किया गया था। इसके पश्चात पूज्य महाराज जी अपने लेखक श्री राजेंद्र जी धवन से बोले कि अभी तक मैं गीता जी पर धापकर (जी भरकर) नहीं बोला हूं मन में इतने भाव आते हैं कि एक नई साधक संजीवनी तैयार हो जाए किन्तु अब यह शरीर काम नहीं देता है यंत्र कमजोर हो गया है। शरीर कमजोर होने पर भी पूज्य महाराज जी का गीता जी पर विचार करना बंद नहीं हुआ था। अस्तु:
साधक संजीवनी पूज्य महाराज जी का ही स्वरूप है। एक बार मुंबई में सत्संग कार्यक्रम पूरा होने पर पूज्य महाराज जी वहां से प्रस्थान कर रहे थे तो एक बहन रोने लगी कि आप हमें छोड़ कर जा रहे हैं तो पूज्य महाराज जी ने पूछा कि तेरे पास साधक संजीवनी नहीं है क्या? उस बहन ने कहा साधक संजीवनी तो है। तो पूज्य महाराज जी ने उस बहन से कहा साधक संजीवनी तेरे पास है तो समझ ले मैं तेरे पास ही हूं। इस घटना से सिद्ध होता है कि साधक संजीवनी के रूप में वर्तमान में पूज्य महाराज जी हमारे साथ ही है।
भाइयों -बहनों व बच्चों हम सब लोगों ने साधक संजीवनी के विषय में संक्षिप्त जानकारी कर ली है। अब हम लोग वापस वर्तमान समय में आ जाते हैं अब हमारे सामने प्रश्न उठ सकता है कि आज के परिपेक्ष में साधक संजीवनी हमारे कैसे उपयोग में आ सकती है हम लोग कई तरह से अपनी अल्प बुद्धि का प्रयोग कर लेते हैं कि इतना बड़ा ग्रंथ है इसको कैसे पढ़ेंगे? यह ग्रंथ तो पंडितों व विद्वानों तथा संतो के काम का है हम सांसारिक साधारण प्राणी इसको कैसे समझ पाएंगे? आदि ऐसी कई मिथ्या धारणा कर लेते हैं।
भाइयों- बहनों और बच्चों आप सत्य मानिये जिन्होंने ऐसी मिथ्या धारणा कर ली थी उन सब को यह ग्रंथ पढ़ने के बाद अनुभव हुआ कि यह ग्रंथ तो अपना जीवन है और यह ग्रंथ पूज्य महाराज जी ने हमारे लिए ही लिखा है। इस ग्रंथ में यह विशेषता है कि इसको भाव व श्रद्धा पूर्वक पढ़ने के पश्चात हमारी पारमार्थिक व व्यवहारिक दोनों ही उलझने सहजता से ही सुलझने लगती है। लौकिक व पारलौकिक ऐसी कोई भी समस्या नहीं है जिसका समाधान इस टीका में नहीं हो सके।
पूज्य महाराज जी का टीका लिखाते समय एक ही ध्येय था किस प्रकार जीव मात्र का कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो सके। चुंकि महापुरुषों के भाव अमोघ होते हैं अतः जैसे ही सरल हृदय से हम एवं श्रद्धा पूर्वक इस ग्रंथ का अवलोकन आरम्भ करगे,वैसे ही महापुरुषों के भाव हमारे हृदय में प्रविष्ट होकर अपना कार्य करने लगते हैं और अल्प समय में ही हम अपने आप में बड़ा बदलाव महसूस कर सकते हैं।
भगवद् कृपा व संतों की कृपा से हमें इस प्रासादिक ग्रंथ पर चर्चा का सुअवसर प्राप्त हुआ है अतः सभी से निवेदन है कि सुलभता से मिले इस मौके को यूं ही हाथ से गवा नहीं देना है। हमारे तो दोनों ही हाथों में लड्डू है एक हाथ में भगवद् वाणी है तथा एक हाथ में भक्त के हृदय रूपी टीका है। अबतो हमारे आनंद ही आनंद है पर सावधान यह आनंद हमारे को हमारे तक ही सीमित नहीं रखना है बल्कि ज्यादा से ज्यादा हम सब लोगों को इस भगवद् वाणी रूपी ग्रंथ का प्रचार करना है। हम सब जीवो पर भगवान नारायण देव व संत महापुरुषों की कृपा इसी तरह से अनवरत बरसती रहे, इसी सद्भावना के साथ ..........................
नारायण नारायण नारायण नारायण.